"गर मर्द हो निगाहों पे फिसलना कभी नहीं,
शबाब की समां में पिघलना कभी नहीं,
हुस्न के शोलों में जलना कभी नहीं,
आंखों के सुकून पे मचलना कभी नहीं,
दो पल की जवानी है ये ढल हीं जायेगी,
शामिल हुए तो क्या ये छोड़ जायेगी,
लौटोगे खाली हाथ फिर उस महबूबा के पास,
जो आज भी दिल से करती है तुझे प्यार,
तेरी निगाहों में ग़ैरत का असर होगा,
उसकी निगाहों में चाहत का बसर होगा,
कैसे हो तुम मर्द जो हर हाल में हारे हो,
हर पग पे बदले हीं सही औरत के सहारे हो
कहतीं हूँ अब भी मर्द का हिलना सिफ़त नहीं,
ग़ैरों के दम पे दुनिया में चलना कभी नहीं,
बनाया है जिसे हमसफर चलने को साथ में,
निभाना उसी का साथ तुम जीवन की राह में,
छोड़ उसे ग़ैर के संग जो चलोगे,
ख़ुदा से डरो उसकी नज़र में मुजरिम बनोगे,
कहते हो ख़ुद को मर्द तो इक राह पे चलो,
फ़र्ज़ की खातिर हर ख्वाहिश कलम करो,
वफाई के तख़्त पे बैठो तो जानें,
'सचमुच में हो तुम मर्द' - ये हर शख्स पहचाने !"

