Friday, 26 February 2010

काश, सच्ची होली इक बार हो जाती ! .............(२६ फ़रवरी, २०१०)

काश ! ये होली बेजुबां कर जाती,

चेहरे के गहरे रंगों की लाली ना उतर पाती,

आवाज और पहचान का खलिस गहरा होता,

पर देखते इसे खोना खुशियों का सेहरा होता,

ना फिक्र अपनों की, ना अब हालात की हीं होती,

परायों से बस इक शाम मुहब्बत भरी ना होती,

दुश्मन भी परेशां, किसे दुश्मन अपना बताते ?

चाहकर भी अपनों-ग़ैरों में वो फ़र्क ना कर पाते,

अब जातिवादों की संचय ना दुनियां होती ,

इंसानों की इंसानियत परिचय हीं दुनियां होती,

देखते कैसे ज़मीं ज़न्नत में बदल जाती,

हर लब पे बिखरती हंसी और उम्र निकल जाती,

रंग-बिरंगी शाम से खुशियाँ सजाई जाती,

सच्ची होली ऐसी हीं सदियों मनाई जाती !