Wednesday, 3 February 2010

मन मेरे चंचल तू होता !..........(१७ जनवरी,१९९३)



मन मेरे चंचल तू होता !

तोड़कर इन बंधनों को, मैं गगनचुम्बी हो जाती,
दायरों में ना सिमटती , दायरों से पार जाती,
मन मेरे चंचल तू होता ! 


सीप के प्यालों में गिर, स्वाति की मोती बन जाती,
मूक के कंठों में जा, वीणा की झंकार लाती,
मन मेरे चंचल तू होता !


मरुभूमि के धरणी पे, जलधि की अम्बार लाती,
संबल बनी आकाश के, अधरों पे उड़ती ही जाती,
मन मेरे चंचल तू होता !


रिक्त जीवन को सिमट, खुशियों का गागर बनाती
इतिहास के पृष्ठों पे अपने, शब्द अंकित कर ही जाती
मन मेरे चंचल तू होता !


रात्रि के तिमिरों को अपने, बल से मैं उज्जवल बनाती
मृत्यु के अंतिम समय में , मैं अमृत जीवन बन जाती
मन मेरे चंचल तू होता !