काश ! ये होली बेजुबां कर जाती,
चेहरे के गहरे रंगों की लाली ना उतर पाती,
आवाज और पहचान का खलिस गहरा होता,
पर देखते इसे खोना खुशियों का सेहरा होता,
ना फिक्र अपनों की, ना अब हालात की हीं होती,
परायों से बस इक शाम मुहब्बत भरी ना होती,
दुश्मन भी परेशां, किसे दुश्मन अपना बताते ?
चाहकर भी अपनों-ग़ैरों में वो फ़र्क ना कर पाते,
अब जातिवादों की संचय ना दुनियां होती ,
इंसानों की इंसानियत परिचय हीं दुनियां होती,
देखते कैसे ज़मीं ज़न्नत में बदल जाती,
हर लब पे बिखरती हंसी और उम्र निकल जाती,
रंग-बिरंगी शाम से खुशियाँ सजाई जाती,
सच्ची होली ऐसी हीं सदियों मनाई जाती !
Friday, 26 February 2010
Wednesday, 3 February 2010
मन मेरे चंचल तू होता !..........(१७ जनवरी,१९९३)
मन मेरे चंचल तू होता !
तोड़कर इन बंधनों को, मैं गगनचुम्बी हो जाती,
दायरों में ना सिमटती , दायरों से पार जाती,
मन मेरे चंचल तू होता !
सीप के प्यालों में गिर, स्वाति की मोती बन जाती,
मूक के कंठों में जा, वीणा की झंकार लाती,
मन मेरे चंचल तू होता !
मरुभूमि के धरणी पे, जलधि की अम्बार लाती,
संबल बनी आकाश के, अधरों पे उड़ती ही जाती,
मन मेरे चंचल तू होता !
रिक्त जीवन को सिमट, खुशियों का गागर बनाती
इतिहास के पृष्ठों पे अपने, शब्द अंकित कर ही जाती
मन मेरे चंचल तू होता !
रात्रि के तिमिरों को अपने, बल से मैं उज्जवल बनाती
मृत्यु के अंतिम समय में , मैं अमृत जीवन बन जाती
मन मेरे चंचल तू होता !
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