Tuesday, 22 February 2011

'कहीं बुलंद आवाज़ , कहीं औंधा घड़ा है' ....इक बात पे इक शक्ल, क्यूँ इतना दोहरा है ???.........( २२ फरबरी, २०११ )

कोई  कहे  ना  कहे , मेरे  एहसास  ने  बस  इतना  कहा  है -' हर  चेहरा  कहीं- कम  कहीं  ज्यादा, मगर  दोहरा  है ' क्यूँ ,आखिर  क्यूँ  ??? काश ,ऐसा  नहीं  होता ! हर  इक  को  गर्व  खुद  पे - ' हममें  अच्छे-बुरे   में  फ़र्क  करने  की  ताक़त  है' ,लेकिन  अपनों  की  बात  आई  जब, औंधे  घड़े  से  हो  गये --खामोश और  चुपचाप ! किसने  कहा है - 'अपने  हमेशा  अच्छे  हीं  होते  हैं  और  ग़ैर  हमेशा  बुरे' ! फ़र्क  करना
है  तो  सच्चा  बन 'अच्छे-बुरे'  में  फ़र्क  कर और इक  चेहरा  दिखा-- या  तो  'बुलंद  आवाज़'  बन  या  'औंधा  घड़ा'  बन  जा ! हर  इंसा  के  लिए  इक  शक्ल  रख , फिर  देख  तेरी  बुलंद  आवाज़   और  तेरी  ख़ामोशी  दोनों  की  कद्र  होगी............! 


"गैरों  पे  बुलंद  आवाज़ , अपनों  पे  औंधा  घड़ा  है 

 इक  बात  पे  इक  शक्ल , क्यूँ   इतना  दोहरा  है ?

 कहीं  रिश्तों  में  है  सिलवट , कहीं  रिश्ता  यूँ   गहरा  है 

 कहीं  बोलने  की  हद  नहीं , कहीं  गूंगा  औ  बहरा  है

 अपनों  के  हर  इक  दाग़  पे , सफाई  का  सेहरा  है 

 गैरों  पे  दिखी  छीटाकशी ,  ना  दर्द  ठहरा  है

 कहीं  लेटे  ज़मीं  की  है  शकल,  कहीं  आसमां-सा  तन  रहा  है 

इक  सूरत  पे  बांटते  ख़ुशी , इक  सूरत  पे  सहरा  है 

खलिस  दिल  को  है  बस  इतनी , क्यूँ  इंसा  यूँ   दोहरा  है ?

क्यूँ  अपनों  में  मूंदी  आँखें , क्यूँ  गैरों  पे  पहरा  है ?

हिम्मत  है  जो , 'अच्छे-बुरे'  में  फ़र्क  दिखलाओ 

सच्चे  इंसा  बनो , इंसानियत  का  दर्क  सिखलाओ 

या  तो  बुलंद  आवाज़, या  औंधा  घड़ा  बन  जाओ

रिश्तों  पे  बदलो  शक्ल  ना , इक  शक्ल  बन  जाओ !"