कोई कहे ना कहे , मेरे एहसास ने बस इतना कहा है -' हर चेहरा कहीं- कम कहीं ज्यादा, मगर दोहरा है ' क्यूँ ,आखिर क्यूँ ??? काश ,ऐसा नहीं होता ! हर इक को गर्व खुद पे - ' हममें अच्छे-बुरे में फ़र्क करने की ताक़त है' ,लेकिन अपनों की बात आई जब, औंधे घड़े से हो गये --खामोश और चुपचाप ! किसने कहा है - 'अपने हमेशा अच्छे हीं होते हैं और ग़ैर हमेशा बुरे' ! फ़र्क करना
है तो सच्चा बन 'अच्छे-बुरे' में फ़र्क कर और इक चेहरा दिखा-- या तो 'बुलंद आवाज़' बन या 'औंधा घड़ा' बन जा ! हर इंसा के लिए इक शक्ल रख , फिर देख तेरी बुलंद आवाज़ और तेरी ख़ामोशी दोनों की कद्र होगी............! "गैरों पे बुलंद आवाज़ , अपनों पे औंधा घड़ा है
इक बात पे इक शक्ल , क्यूँ इतना दोहरा है ?
कहीं रिश्तों में है सिलवट , कहीं रिश्ता यूँ गहरा है
कहीं बोलने की हद नहीं , कहीं गूंगा औ बहरा है
अपनों के हर इक दाग़ पे , सफाई का सेहरा है
गैरों पे दिखी छीटाकशी , ना दर्द ठहरा है
कहीं लेटे ज़मीं की है शकल, कहीं आसमां-सा तन रहा है
इक सूरत पे बांटते ख़ुशी , इक सूरत पे सहरा है
खलिस दिल को है बस इतनी , क्यूँ इंसा यूँ दोहरा है ?
क्यूँ अपनों में मूंदी आँखें , क्यूँ गैरों पे पहरा है ?
हिम्मत है जो , 'अच्छे-बुरे' में फ़र्क दिखलाओ
सच्चे इंसा बनो , इंसानियत का दर्क सिखलाओ
या तो बुलंद आवाज़, या औंधा घड़ा बन जाओ
रिश्तों पे बदलो शक्ल ना , इक शक्ल बन जाओ !"

