Monday, 5 October 2009

'पथिक' - ज़िन्दगी का इक कड़वा सच जो शायद इंसान भूल जाता है..........( १ मार्च, १९९४)



'हम सोचें तो हमें महसूस होगा कि ज़िन्दगी हमेशा इक 'राह' रही है और इस पे चलने वाले इक 'पथिक', जो कहीं किसी मोड़ पे थक के इक लम्बी गहरी नींद सो जातें हैं और ऐसे में अपने भी आपका साथ छोड़ देतें हैं! अगर हर इंसान के साथ ऐसा होना है तो हमें क्यूँ किसी से वैर-भाव रखना ? आप राजा हों या रंक, जीवन आपका आपकी शक्ति, आपकी हैसियत पे आधारित है पर गति आपको अपने किये कर्मों के अनुसार ही प्राप्त होगी !अगर हर इंसा की सोच थोड़ी गहरी हो जाए तो इस धरती पे स्वर्ग उतर आए !'

"थक गया वो आज, खुले आकाश के नीचे

चिर निद्रा में सोया है

कल राही था पथ का आज, पलकों को समेटे वो
धरा की झुरमुटों से दूर, कहीं जा गुम हो गया है

जो कल उसका ठिकाना था, आज वो ही बेगाना है

आँख मूंदी है जबसे, बस कफ़न हीं आशियाना है

हाथ से पाला था जिसको, पास बैठे रो रहें हैं

दो पल नहीं छोड़ा पलंग पे, वो ज़मीं पे सो रहें हैं

इक गति क्या जो रुक गई, सबने पराया कर दिया

जीवन दिया जिसको, उसी ने अग्नि में है समर्पित किया

मूक मैं बस खड़ी, प्रश्नों की लड़ियाँ बुन रहीं

जीवन के इस कुरुक्षेत्र में, मृत्यु की घड़ियाँ गिन रही

क्या मेरी मृत्यु भी मुझे, इस तरह तरसाएगी ?

मेरे करों से खींच कर , मुझको वो ले जायेगी

छोड़ तन को रूह मेरी, कहीं भीड़ में खो जायेगी

तप्त बिखड़ी अस्थियाँ, इतिहास बन हीं जायेंगी

फिर क्यूँ परपीड़ा को, रूचि का नाम दूँ ?

क्यूँ कटु भावों को, अपनी जीत-सा सम्मान दूँ ?

ज़िन्दगी बीतेगी सचमुच, शक्ति की दहलीज़ पे

क्या गति मुझको मिलेगी, झूठ की ताबीज़ पे ?"

Friday, 2 October 2009

बढ़ती उमर से मेरी इक गुज़ारिश, शायद सुकून दे जाए -'बुढापा अपने बच्चों को उनका हक़ ज़रूर दे पर सारा हक़ दे, ये ज़रूरी नहीं'.........( २१ फरवरी, २००२)

"हक़ दे दो मगर हुकूब मत देना

जीते जी अपना कभी वज़ूद मत देना

औलाद हैं तो क्या खुश करने की बेखुदी में

कहीं ऐसा न हो अपना सुकून दे देना !"

'जलने वाले इंसानों का तमाम उम्र बदलता रुख'- शायद ही किसी की खुशी में दिल से शरीक हो पाये...........(२७ मार्च, २००१)

"कल तक जिस अक्स से नफ़रत-सी होती थी

शागीर्दी में उन्हीं के वो दिन-रात बैठें हैं

लगता है महफ़िल में कोई शामिल नया हुआ है

जलाने को जिसे दुश्मनों के साथ बैठें हैं !"