Thursday, 13 August 2009

रहमदिल लोगों से मेरी इक इल्तज़ा..........(१५ अप्रैल, २००४)

"करो एहसां तो इक हद तक , ज़रा-सा बेरहम होना



मुकाबिल में है जो दम ख़म , ना भूले से उसे खोना


भले ही हैसियत तेरी , अर्श हीं चूमें

मगर जो फ़र्ज़ उसका है , उसे इन्कार मत करना


यही करते हैं अक्सर लोग , रहमदिल यूँ हो जातें हैं


कि सज़दे में खड़े फिर लोग , ओहदे में घुसे आतें हैं


अब हालात यूँ होता है , एहसां भुला जातें हैं


तारीफ में थकते ना लब, शिकवों में गुनगुनातें हैं


फिर खुन्नसों का आहिस्ता , इक दौर चलता है


अहम कि सीढियां चढ़-चढ़ , वही पाँव फिसलता है


तुम तक़दीर को अपना , गुनाहगार बतलाते हो


ख़ुद से हुई ख़ता जो , उसको भुला जाते हो


उस दिन जो बेरहम बने , सज़दे में छोड़ होते


हिम्मत ना थी हालात की , ये बेवफा होते !"

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