Monday, 18 October 2010

बुढापे से ज़वानी का इक दिन का ये जलन...............(६ अक्टूबर, २०१०)

शुक्रिया, शुक्रिया , बहुत  बहुत  शुक्रिया ......... " वेलेंटाइन डे " !  तुम  नहीं   होते, ये बुढापा  तरसता , साल  का  एक  दिन  भी  मुहब्बत  ना  बरसता  और  ज़वानी  हमसे  इक  दिन  सही  यूँ  नहीं  जलता ! 
  
      मुक़र्रर  ना  होता  दिन,  हम  प्यासे   हीं  मर  जाते   
      मुहब्बत  को  दिल  करता ,  वजह  क्या  बताते ?
      हर  वक़्त  हम  पे  हँसती  ज़वानी  को,  कैसे  ये  सुनाते..........

        "कहने  को  हूँ  बूढ़ा ,  बस  भूला  आवाज़  हूँ 
         उमर  की  लाज  आँखों  में, नहीं  भूला  मैं  साज  हूँ  
         इश्क  मेरा  नहीं  है  कम , सुनो  मैं  माहताब  हूँ 
         ठंडी  मुहब्बत  कितनी  गहरी, तुम्हें  दिखाने  को  आज  हूँ !" 
                            
                                                

Wednesday, 29 September 2010

'कभी किसी की हालात पे मत हँसो '..................(२९ सितम्बर , २०१०)

"ऊँगली मत उठाओ , कभी  किसी  की  हालात  पे  मत  हँसो "!  नहीं  मालूम  कब  उसकी      आह  तुम्हें  ऐसे  हीं  एक  वक्त  का  चेहरा दिखा  दे  और  तुम्हें  मालूम  हो  ऐसे  वक्त  का    दर्द  किस  कदर  आंसुओं  में   डुबोता  है ?

         "तन्कीद   करनेवालों   की, 


          ख़ातिर  दुआं  करना 
    
          इक  बार  तेरे  हाल  से,  


          उनका  भी  वास्ता  हो 


          याद  आयेंगे  वो  लम्हें ,


          रुलाया  था  किसी  को 
    
          दर्द  देगा  खलिस, 


          तन्कीद  के  मायने  समझ  जायेंगे "   

Wednesday, 18 August 2010

सम्पूर्ण सिंह उर्फ़ (गुलज़ार)........आपको जन्मदिन की ढेरों बधाई !



मैं लिखावट में अक्सर दर्द को ज्यादा महत्व देती हूँ , इसलिए मेरे 


प्रिय गीतकार "गुलज़ार" जी हैं। उन्हें हीं मैंने अपनी लिखावट में 

अपना आदर्श माना है। आज उनके जन्मदिन के अवसर पे उनको मेरी 

ओर से ढेरों बधाई ! उन्हें ईश्वर सदियों तक इस धरती पे शाश्वत रूप में 

रखें। मेरे दो लब्ज़ों की उन्हें ये छोटी सी सौगात ...............




"तेरे लब्ज़ कानों में पड़े , आँखों में हुई बरसात


फिर भी पलक मूंदी नहीं , जागते हीं कटी रात ।


आँखों से पूछा , क्यूँ तू सारी रात ना सोया ?


चुपके कहा , गुलज़ार का तोहफा रहा था पिरोया ।


तोहफ़े में कुछ कहा था यूँ ------------


'जब तक रहे ये ग़ुल, गुलज़ार तू रहे ।

 सदियाँ आँकें तेरी उम्र ,ये साल बस बहें !'



ये सुन आखों में फिर से आँसू छलक आये । और दिल ने कहा -'काश ,     ये सच होता ' !

Thursday, 22 July 2010

ये है मुकद्दर की बादशाहत !



खुद पे और ईश्वर पे विश्वास अच्छा है लेकिन तकदीर का क्या जिसने इतिहास

के पन्नों में कई ऐसे किस्से लिख डाले जिसके तहत कई बादशाहों की बादशाहत ख़ाक हो गयी। 


शायद ये कड़वा सच हमें याद नहीं रहता और हम खुद की बादशाहत और इसे बचाए रखने के तहत 


ईश्वर पे विश्वास का दो हथियार ले खुद के हार की सोच को अपने दिमाग से बाहर फेंक डालते हैं और 


यही हममें अहम की भावना जगा देता है जो इक रोज मुकद्दर की बादशाहत के सामने घुटने टेक देता 


है। इसलिए ईश्वर पे विश्वास और खुद पे विश्वास के साथ-साथ मुकद्दर को दुआं कीजिये कि वो आपकी 


सोंच को सच्चाई बनाने में और आपकी सच्चाई को आपकी ज़िन्दगी का साथ निभाने में आपका साथ 


दे।



       "ख़ुदा भी न कुछ कर पायेगा,

        ग़र मुकद्दर ख़फा हो जाएगा ।

        शोलों से खेलनेवाला ,

        चिन्गारी से जल जाएगा ।"


Tuesday, 29 June 2010

इक ऐसी माँ जो सिर्फ अपने बच्चे को अव्वल बताती है चाहे ग़ैर बच्चे उनके बच्चों से कितने भी बेहतर हों ............(२९ जून,२०१०)

ये किस्सा कुछ ख़ास नहीं मगर इसे गौर कीजिये तो कई माँ के आँखों में आंसू उतर आतें हैं !मगर उन्हें इंतज़ार उन पलों का है, जब उनके बच्चों को चाँद की रौशनी मिलेगी और  सामने का जलता दीया खुद-ब-खुद अँधेरा-सा नज़र आएगा ! हाँ, वक़्त थोडा इंतज़ार कराता है , इसमें कोई शक नहीं !


   'अपने  आँचल का दीया , सितारा है लग रहा 

   मुक़ाबिल  चाँद भी खड़ा , आवारा हीं लग रहा '

Thursday, 3 June 2010

क़िस्मत का पलटता रुख़........(०३ जून, २०१०)

क़िस्मत पे कभी घमंड मत करना , ये कब पलट जाए मालूम नहीं !आज जो तुम्हारे इर्द-गिर्द हुक्म की तामीली में लगा है शायद उससे हीं मिलने को कल तुम्हें कतारों में खड़ा होना पड़े !

    "जो  तामिले  हुक्म में  मेरे , दिन- रात  बैठे थे          उनसे हीं  मुलाक़ात  की,  क़तार में खड़ी हूँ !"

Friday, 21 May 2010

"अधखिला राजीव" !............(१९९१)



मेरे सर्वप्रिय नेता -- 'श्री राजीव गाँधी को मेरी ओर से इक भावभीनी श्रद्धांजलि' !

बस इतना कहती हूँ -"कूटनीतिज्ञों को हीं राजनीति शोभा देती है ना कि इक

सीधे-साधे, लोगों से सच्चा प्यार करनेवाले इंसान को वरना वो इंसान अपने

भोले- भाले स्वभाव में अभिमन्यु -सा चक्रव्यूह में फँसकर मृत्यु को प्राप्त होता है

चाहे वो चक्रव्यूह आपके अपनों द्वारा हीं तैयार की गयी हो"!




"२० अगस्त सन ४४ को, खुशियों का इक दीप जला था

बम्बई के सुंदर तालों में, नन्हा -सा राजीव खिला था

राजनीति के चक्रव्यूह में, अभिमन्यु -सा प्यारा था वो

तोड़े भी न टूट सका, ऐसा नभ का तारा था वो "!

Tuesday, 11 May 2010

सच्ची मोहब्बत का एहसास हर पल है पास-पास........


             

"बादेसबा चली , तेरा ख्याल आया
तन्हा नज़र हुई , तेरा ख्याल आया "



खुलती हुई जुल्फों ने, कुछ भी नहीं कहा 
उलझी लटें सुलझाई , तेरा ख्याल आया


कलियों से गुफ़्तगू , हर रोज़ होती थी
भौरों को पास देखा, तेरा ख्याल आया



दूर भी मौजों से, आँखों को सुकून था 
साहिल से टकराया तो, तेरा ख्याल आया



"बादेसबा चली , तेरा ख्याल आया
तन्हा नज़र हुई , तेरा ख्याल आया !"

Tuesday, 20 April 2010

ग़ैरों से शिक़ायत से पहले खुद से रु-ब-रु हो............!



अगर इंसान में हिम्मत है तो ग़ैरों से पहले ख़ुद से ग़ैरों की तरह रु-ब-रु हो, 

पायेगा उनमें गलतियों की कमीं नहीं !गलतियाँ कभी-कभी आपके इर्द-

गिर्द की परेशानियों से भी निकल आतीं हैं, लेकिन हम देखनेवालें बस 

उनपे तन्कीद करतें हैं, कभी ये नहीं सोचते गलती करनेवाले के साथ 

हालात क्या थे? ख़ुद को ग़ैर की जगह रखो पाओगे तुम वही करते जो उस 

ग़ैर ने किया! पहले ख़ुद को संवारों फिर ग़ैरों पे तन्कीद करना !


        
         "इक बार ग़ैर बन ख़ुद से तो रु-ब-रु हो         


           दावा है लग्जिशों की कतारें खड़ीं हो जायेंगीं !"

Friday, 26 February 2010

काश, सच्ची होली इक बार हो जाती ! .............(२६ फ़रवरी, २०१०)

काश ! ये होली बेजुबां कर जाती,

चेहरे के गहरे रंगों की लाली ना उतर पाती,

आवाज और पहचान का खलिस गहरा होता,

पर देखते इसे खोना खुशियों का सेहरा होता,

ना फिक्र अपनों की, ना अब हालात की हीं होती,

परायों से बस इक शाम मुहब्बत भरी ना होती,

दुश्मन भी परेशां, किसे दुश्मन अपना बताते ?

चाहकर भी अपनों-ग़ैरों में वो फ़र्क ना कर पाते,

अब जातिवादों की संचय ना दुनियां होती ,

इंसानों की इंसानियत परिचय हीं दुनियां होती,

देखते कैसे ज़मीं ज़न्नत में बदल जाती,

हर लब पे बिखरती हंसी और उम्र निकल जाती,

रंग-बिरंगी शाम से खुशियाँ सजाई जाती,

सच्ची होली ऐसी हीं सदियों मनाई जाती !

Wednesday, 3 February 2010

मन मेरे चंचल तू होता !..........(१७ जनवरी,१९९३)



मन मेरे चंचल तू होता !

तोड़कर इन बंधनों को, मैं गगनचुम्बी हो जाती,
दायरों में ना सिमटती , दायरों से पार जाती,
मन मेरे चंचल तू होता ! 


सीप के प्यालों में गिर, स्वाति की मोती बन जाती,
मूक के कंठों में जा, वीणा की झंकार लाती,
मन मेरे चंचल तू होता !


मरुभूमि के धरणी पे, जलधि की अम्बार लाती,
संबल बनी आकाश के, अधरों पे उड़ती ही जाती,
मन मेरे चंचल तू होता !


रिक्त जीवन को सिमट, खुशियों का गागर बनाती
इतिहास के पृष्ठों पे अपने, शब्द अंकित कर ही जाती
मन मेरे चंचल तू होता !


रात्रि के तिमिरों को अपने, बल से मैं उज्जवल बनाती
मृत्यु के अंतिम समय में , मैं अमृत जीवन बन जाती
मन मेरे चंचल तू होता !