Thursday, 13 August 2009

रहमदिल लोगों से मेरी इक इल्तज़ा..........(१५ अप्रैल, २००४)

"करो एहसां तो इक हद तक , ज़रा-सा बेरहम होना



मुकाबिल में है जो दम ख़म , ना भूले से उसे खोना


भले ही हैसियत तेरी , अर्श हीं चूमें

मगर जो फ़र्ज़ उसका है , उसे इन्कार मत करना


यही करते हैं अक्सर लोग , रहमदिल यूँ हो जातें हैं


कि सज़दे में खड़े फिर लोग , ओहदे में घुसे आतें हैं


अब हालात यूँ होता है , एहसां भुला जातें हैं


तारीफ में थकते ना लब, शिकवों में गुनगुनातें हैं


फिर खुन्नसों का आहिस्ता , इक दौर चलता है


अहम कि सीढियां चढ़-चढ़ , वही पाँव फिसलता है


तुम तक़दीर को अपना , गुनाहगार बतलाते हो


ख़ुद से हुई ख़ता जो , उसको भुला जाते हो


उस दिन जो बेरहम बने , सज़दे में छोड़ होते


हिम्मत ना थी हालात की , ये बेवफा होते !"

Wednesday, 12 August 2009

मेरे चहेते गीतकार "गुलज़ार (सम्पूर्ण सिंह) " के ७२वे जन्मदिन पे उनसे मेरी इक गुज़ारिश.........(१४ अगस्त, २००६)


"तेरे सोज(दर्द) की स्याही, जिस दिन ख़तम होगी

उस दिन मैं सोचूँगी, मेरी लिखावट भी गहरी है

हर लब्ज के कतरे में छिपा , गम का आशियाना

हमें जौहर सिखा 'सम्पूर्ण' , तेरी ये कैसी छड़ी है ! "

मुख्यमंत्री अच्युथानंदन को मेजर उन्नीकृष्णन के पिता की नाराजगी पे इक शब्द के प्रयोग का इक करारा ज़बाब...........!



"ओ मूर्ख ! निकले शब्द पे, कभी गौर भी तूने किया,





फरिश्ता -ए-वफा कहते उन्हें , जिन्हें गाली में तूने कहा





अब तेरे लिए जो कह रही , उनपे ज़रा तू गौर कर





तेरी समझ गाली थी जो , उस रूप में आ जाते हीं





वो दर खुला मिलता तुझे , हर दिल में समा जाते वहीं





सोचा तेरा क्या रूप था , वो शब्द भी ना तुझको मिला





ख़ुद को कहेगा क्या बता , उस दर पे जा मस्तक झुका !